अल्मोड़ा/बागेश्वर/चंपावत/पिथौरागढ़

वृक्षारोपण से ही बचेंगे नौले-धारे और गैर हिमालयी नदिया: मोहन चंद्र कांडपाल

अल्मोड़ा। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में 353 गैर बर्फीली नदियों का अस्तित्व खतरे में है। इनमें से ज्यादातर नदियां केवल बरसाती बनकर रह गई हैं। सदा बहती रहने वाली इन नदियों के सहारे ही पर्वतीय क्षेत्र का ताना-बाना है। इनके प्रभावित होने से गांव का जीवन प्रभावित हो रहा है।

यह गैर बर्फीली नदियां गांव के अपने जल स्रोतों, नौलौं व धारों के सहारे जीवित थी। नौलों, धारों, गधेरों के रखरखाव का पुराना ज्ञान हमारे बुजुर्गों के साथ समाप्त हो रहा है। हम सिर्फ नल के जल तक सीमित हो गए हैं। पहले गांव में घर तक नौलों धारों से पानी लाया गया। वह सूख गया तो नजदीक के गाड़ गधेरों से पानी नल में लाया गया। उसमें पानी कम हुआ तो पास की नदी से नल में पानी लाया गया। अब छोटी नदियों में पानी कम हुआ तो पिंडर व अलकनंदा से पानी लाने की आवाज उठ रही है। यदि हमने जल संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया तो कब तक यह नदियां हमें नल से जल देती रहेंगी क्योंकि जलस्रोत सूख गए तो एक दिन नदियों ने भी सूखना है। पोखर, कुंड, हौस, चाल ,चोरी, तौली, खाल व खाव के माध्यम से हमारे बुजुर्ग वर्षा के पानी का संरक्षण करते रहे हैं लेकिन उससे भी ज्यादा पहाड़ों के ऊंचे से ऊंचे स्थान पर भी खेती करके वह पहाड़ों पर पानी बोते रहे हैं।
मैं वर्ष 1990 से ग्रामीण स्तर पर चौड़ी पत्तीदार पांधे लगाने व वर्षा के जल के संरक्षण हेतु खाव खोदने का कार्य कर रहा था लेकिन समस्या कम नहीं हो रही थी। वर्ष 2012 में एक गांव में पानी की समस्या पर चर्चा चल रही थी आखिर गांव के जल स्रोतों का पानी क्यों सूख रहा है तब एक बुजुर्ग महिला ने कहा मास्साब पानी कोई बो नहीं रहा है तो नौलों धारों में कहां से आएगा ? उस महिला का कहना था सब अपने खेतों को बंजर छोड़कर महानगरों में चले गए हैं। खेतों में अब वर्षा का पानी रुकता नहीं है जो वर्षा होती है सब बह कर चली जाती है तो नौलौं धारों में कहां से पानी आएगा। उस महिला की उस बात पर मैंने बहुत विचार किया। मैं लगभग 62 गांव में महिला संगठन बनाकर सामाजिक कार्य कर रहा था तब मैंने उन गांव में जाकर देखा जहां जल स्रोतों के ऊपरी क्षेत्र के खेतों में हल जोता जा रहा था वहां आज भी नौलौं धारों में पर्याप्त पानी था। जहां खेत बंजर हो गए थे वहां के नौले धारे सूख गए थे। अपने 34 वर्ष के सामाजिक कार्य के दौरान मैंने देखा था कि पहले पहाड़ियों के ऊपर छोटे-छोटे खेतों में भी हल जोत कर खेती की जाती थी। खेत का ढलान पहाड़ी की ओर होता था जिससे खेत में पानी रुके। आधे खेत में धान व आधे खेत में मडुवा बोया जाता था। पहाड़ी के तरफ के खेत को सिमार बोलते थे खेतों की मुंडेर चौड़ी होती थी जिससे वर्षा का जल खेत में रुके। अब गांव के बढ़ते पलायन के कारण खेत बंजर हो गए हैं जिससे वर्षा का जल सीधे बह जाता है। तब मैंने नारा दिया ‘पानी बोओ पानी उगाओ’ जिससे खेत में पड़ने वाली प्रत्येक बूंद को जमीन में डाला जा सके। यदि पानी जमीन के अंदर जाएगा तो निश्चित कहीं ना कहीं जल स्रोत के रूप में निकलेगा इसीलिए मेरे द्वारा लोगों से अपील की गई कि वह या तो अपने खेतों में हल जोतें या फिर खेत में खाव बनाकर वर्षा जल को जमीन में बोया जाए। हमारे क्षेत्र की रिश्कन नदी भी जून माह में लगभग सूख जाती थी। पिछले 10/12 वर्षों से ‘पानी बोओ पानी उगाओ’ अभियान के अंतर्गत 18 घन मीटर के 350 से अधिक लगभग 1000000 के खाव जनता के सहयोग से रिस्कन नदी के आसपास के गांव में बनाए जा चुके हैं जिनके माध्यम से करोड़ों लीटर पानी जमीन में बोया जा रहा है इसी कारण कई सूखे नालों में पुनः पानी आया है। 40 किमी लंबी रिस्कन नदी 40 से 45 गांव की जीवन दायिनी है मैंने जन प्रतिनिधियों राज्य व केंद्र सरकार से भी नदी को बचाने हेतु आगे आने की अपील की है।

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