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अल्मोड़ा/बागेश्वर/चंपावत/पिथौरागढ़

फूलदेई छम्मा देई, दैणी भरभंकार, यो देली सो बारम्बार…

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लोकपर्व फूलदेई पर बच्चों ने फूलों से देहली पूजकर की खुशहाली की कामना
अल्मोड़ा। आज भी एक खास त्योहार है। इस त्योहार को ‘फूलदेई’ कहते हैं। इसे चैत्र संक्रांति के दिन मनाया जाता है। दरअसल हिंदू पंचांग के अनुसार, चैत्र मास ही हिंदू नववर्ष का पहला महीना होता है। बसंत ऋतु के स्वागत के तौर पर भी फूलदेई पर्व मनाया जाता है।
‘फूलदेई’ पर्व में बच्चों का खास महत्व होता है। उत्तराखंड के कुमाऊं में फूलदेई पर्व मनाया जाता है। इस दौरान बच्चों की टोली थाली को सजाकर उसमें चावल, फूल और गुड़ रखती है और आसपास के घरों में जाकर मुख्य द्वार की चौखट पर फूलदेई करते हैं। यानी देहली पर अक्षत और फूल फेंकते हैं और घरों की खुशहाली की कामना करते हैं। इस पूरी रस्म के दौरान वे लोकगीत भी गाते हैं। यह लोक गीत है- फूलदेई छम्मा देई, दैणी भरभंकार, यो देली सो बारम्बार, फूलदेई छम्मा देई, जातुके देला उतुके सई। अल्मोड़ा के डढूली गांव की निवासी शांति देवी ने इस गीत का मतलब समझाया। वह बताती हैं इस लोकगीत के माध्यम से बच्चे कुल देवी-देवताओं से प्रार्थना करते हैं कि ‘देहली फूलों से भरपूर और मंगलकारी हो। सबके घरों में अन्न का पूर्ण भंडार हो।’ वह बताती हैं कि आज के दिन छोटे बच्चे फूलदेई, छम्मा देई गीत गाते हुए सुबह से ही अपने घरों से निकल जाते हैं। अपनी डलिया में बच्चे फ्योंली, बुरांस और दूसरे स्थानीय रंग बिरंगे फूलों को चुनकर लाते हैं और उनसे सजी फूलकंडी लेकर घोघा माता की डोली के साथ घर-घर जाकर फूल डालते हैं और सुख-समृद्धि की मंगलकामना के साथ यह गीत गाते हैं। बच्चों की टोली जिन घरों में जाती है, उन्हें घर के लोग उन्हें रुपये और गुड़ भेंट करते हैं। यह पर्व 8 दिनों तक मनाया जाता है। इस दौरान चावल और गुड़ से बच्चों के लिए अनेक पकवान बनाए जाते है। यह लोकपर्व बताता है कि प्रकृति के बिना इंसान का कोई वजूद नहीं।
फूलदेई’ को गढ़वाल में ‘फूल संक्रांति’ कहते हैं
प्रकृति से जुड़े इस त्योहार को कुमाऊं में ‘फूलदेई’ जबकि गढ़वाल में ‘फूल संक्रांति’ कहते हैं। इन दिनों पहाड़ों में जंगली फूलों की भी बहार रहती है। चारों ओर छाई हरियाली और कई प्रकार के खिले फूल प्रकृति की खूबसूरती में चार-चांद लगाते हैं। हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र महीने से ही नववर्ष होता है। नववर्ष के स्वागत के लिए कई तरह के फूल खिलते हैं। उत्तराखंड में चैत्र मास की संक्रांति अर्थात पहले दिन से ही बसंत आगमन की खुशी में फूलों का त्योहार फूलदेई मनाया जाता है। इस शुभ अवसर पर देवभूमि के लोग प्राचीन समय से ही अपने ईष्ट देवी-देवताओं, मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना करते आए हैं। यहां लगभग हर संक्रांति को एक लोकपर्व के रूप में मनाया जाता है।
क्या है मान्यता?
इस त्योहार को क्यों मनाया जाता है? यह सवाल आपके मन में जरूर उठ रहा होगा। इस त्योहार को लेकर पहाड़ों में अनेक लोक कथाएं प्रचलित है। एक मान्यता के अनुसार, सदियों पहले जब पहाड़ों में घोघाजीत नामक राजा का शासन था। उसकी घोघा नाम की एक पुत्री थी‌। कहा जाता है कि घोघा प्रकृति प्रेमी थी। परंतु एक दिन छोटी उम्र में ही घोघा कहीं लापता हो गई। जिसके बाद से राजा घोघाजीत काफी उदास रहने लगे। तभी कुलदेवी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि राजा गांवभर के बच्चों को वसंत चैत्र की अष्टमी पर बुलाएं और बच्चों से फ्योंली और बुरांस देहरी पर रखवाएं। जिससे घर में खुशहाली आएगी। राजा ने ऐसा ही किया। जिसके बाद से ही पूरे राज्य में फूलदेई मनाया जाने लगा।
फ्योंली नाम की वन कन्या
वहीं एक अन्य लोककथा के अनुसार, फ्योंली नामक एक वन कन्या थी। जो जंगल मे रहती थी। जंगल के सभी लोग उसके दोस्त थे। उसकी वजह से जंगल मे हरियाली और समृद्धि थी। एक दिन एक देश का राजकुमार उस जंगल में आता है और उसे फ्योंली से प्रेम हो गया। वह उससे शादी करके उसे अपने देश ले गया। कहा जाता है कि इस दिन के बाद जहां पेड़ पौधें मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे वहीं फ्योंली को अपने ससुराल में मायके और अपने जंगल के मित्रों की याद आने लगी। परंतु सास उसे मायके जाने नहीं देती थी। बार-बार प्रार्थना करने बाद भी जब ससुराल वालों का दिल नहीं पसीजा तो एक दिन मायके की याद में तड़पकर फ्योंली मर जाती है। ससुराल वालों द्वारा उसे जिस जगह पर दफनाया जाता है वहां कुछ समय बाद पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है जिसे फ्योंली के नाम से ही जाना जाता है। फूलदेई पर इसी फूल को चौखट पर रखा जाता है।

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संपादक: गुलाब सिंह
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