ज़ख्म अपनों से हमको मिले इस क़दर,
स्याही भी अब कलम की गरल हो गई।
पीर की झील जो थी अभी तक जमी,
ताप धोखों की पाकर तरल हो गई।
भावना उर में ऐसी जगी क्या कहूँ,
शब्द मिलते गए और ग़ज़ल हो गई।
तुमको पा करके मुझको लगा इस तरह,
ज़िन्दगी थी कठिन अब सरल हो गई।
देवेश द्विवेदी ‘देवेश’