अल्मोड़ा/बागेश्वर/चंपावत/पिथौरागढ़

हम शहरी विचारधारा के साथ गाँव में रहेंगे तो गाँव खत्म हो जायेंगे: मोहन चंद्र कांडपाल

द्वाराहाट (अल्मोड़ा)- चलो गांव की ओर अभियान” का प्रारंभ 5 जून 2019 विश्व पर्यावरण दिवस पर जन सरोकार मंच द्वारा आयोजित गोष्ठी में हुआ था । शहरीकरण के इस दौर में गांव को पिछड़ा समझे जाने की विचारधारा ने जन्म ले लिया है जिसके कारण गांव से पलायन बढ़ता जा रहा है। अपने संघर्षों व कठिन परिश्रम से ग्रामीण जीवन को जिंदा रखने वालों को सरकार व समाज दोनों ने नजरअंदाज कर दिया है । सरकार द्वारा शहरीकरण को बढ़ावा देने वाली नीतियों व शिक्षा के बाजारीकरण के कारण युवाओं, महिलाओं व बच्चों के साथ – साथ बुजुर्गों में शहर की ओर जाने की होड़ लग गई है।
मोहन चंद्र कांडपाल का कहना है कि शहरों में रहने वाला अगड़ा व गांव में रहने वाला पिछड़ा की विचारधारा के कारण अपने दम पर खेती व पशुपालन से जीवन यापन करने की सोच समाप्त होती जा रही है। इसी कारण ना चाहते हुए भी अगड़ा बनने के दबाव में युवा अपने घर, आंगन, जंगल, पानी छोड़कर शहरों में छोटी-मोटी नौकरी करने चले जाते हैं । बढ़ते शिक्षा के बाजारीकरण ने उसे परिवार को भी शहरों की ओर ले जाने पर मजबूर कर दिया है । कुछ वर्ष पूर्व शहरों के नौकरीपेशा सेवानिवृत्त होने के बाद अपने पैतृक गांव में मकान लगाकर रहने आते थे। वर्तमान में गांव में रहकर नौकरी करने वाले सेवानिवृत्त के बाद शहरों में जाकर मकान लगाकर रहना पसंद कर रहे हैं। ऐसा वह स्वास्थ्य, शिक्षा व अन्य सुविधाओं के अभाव में कर रहे हैं। ऐसा उनका मानना है। वे कहते हैं कि इस शहरमुखी चकाचौंध के चक्रव्यूह में आज का युवा फंस गया है शहरों में उसके पास ठीक से जीवन यापन करने हेतु आमदनी नहीं है। गांव में उसे समाज जीने नहीं दे रहा है। आखिर वह क्या करें? सिर्फ पलायन?
“चलो गांव की ओर अभियान” के माध्यम से हम सिर्फ शहरों में रहने वाले अगड़े की सोच को तोड़ना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि शहरों में युवा छोटी-मोटी नौकरी कर किसी के नौकर ना बने। अपने गांव में रहकर अगड़े बनकर स्वाभिमान के साथ जीवन यापन करें क्योंकि भारत गांवों का देश है। 70% जनता आज भी गांव में रहती है। गांव हमारी ताकत हैं।
इसका मतलब यह नहीं समझना चाहिए कि हम कह रहे हैं कि शहरों में नौकरीपेशा कर सुविधा संपन्न जीवन यापन करने वाले लोग शहर छोड़कर गांव आ जाएं। हम कह रहे हैं कि शहरों में परेशानी व अभाव में जीवन यापन करने वाले गांव में आकर स्वाभिमान से अपने जीवन यापन के तरीके तलाशें। लोगों की इस सोच को तोड़े जिसमें लोग कहते हैं “आई तक घरे पन छै तू”।
कांडपाल कहते हैं कि आज समाज की सोच बदलने की जरूरत है। शहरों के संपन्न लोगों का आह्वान करते हुए कहते हैं कि वह गांव में आकर अपने गांव छोड़ने की पीड़ा, व्यथा व शहरों की समस्याओं पर चर्चा करें। वह शहरी संस्कृति के साथ गांव में ना आएं। अपने बच्चों को अपनी पहाड़ी भाषा बोलना शहर में भी सिखाए। कम से कम माता- पिता को अपनी भाषा में ही ईजा – बाबू कहना तो अवश्य सिखाएं जिससे वह अपनी भाषा व परंपराओं को पिछड़ा समझने की भूल ना करें। अपने बच्चों को समय-समय पर गांव आकर ग्रामीण जीवन यापन करने का तरीका, गांव वालों से मिल जुल कर रहना सिखाएं। अपने नौले-धारे, ‌‌गधेरे, घराट व जंगलों के महत्व को बताएं। पहाड़ी फलों के साथ-साथ चूल्हे में कैसे रोटी बनाकर खाई जाती है यह सिखाएं। शहरों के सक्षम संपन्न लोगों से अनुरोध है कि वह अपने गांव में अपने बुजुर्गों के नाम पर सिर्फ मंदिर ही ना बनाएं, सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान ही ना कराएं, उनके नाम पर खाव-तालाब खुदवाएं, चौड़ी पत्ती दार व फलदार वृक्षों का जंगल तैयार करवाएं जिससे हमारे नौले- धारे व छोटी नदियां बच सकें। चलो गांव की ओर अभियान के माध्यम से हम अपील करना करना चाहते हैं कि गांव में रहकर जीवन यापन करने की सोच व संस्कृति के साथ – साथ गांव से मिलजुल कर रहना होगा। यदि हम शहरी विचारधारा के साथ गांव में जबरदस्ती अगड़ा बनकर आएंगे तो गांव समाप्त हो जाएंगे।

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