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चैत्र में महिलाओं को रहता है भिटौली का इंतजार, क्या है ये परंपरा पढ़िए…

कुमाऊं में सदियों से चली आ रही भिटौली की परंपरा

अल्मोड़ा। “भिटौली” का शाब्दिक अर्थ भेंट देने से हैं। प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा उस दौर में काफी महत्व रखती थी। इसके जरिए भाई-बहन का मिलन होता था, क्योंकि उस समय में संचार की कोई और सुविधा ना होना इसका प्रमुख कारण था। भिटौली के जरिए ही मायके वालों को विवाहिताओं की कुशल-क्षेम भी मिल जाती थी।
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में हर साल चैत्र में मायके पक्ष से पिता या भाई अपनी बेटी/बहन के लिए भिटौली लेकर उसके ससुराल जाता है। पहाड़ी अंचल में आज भी महिला को चैत में भिटौली दी जाती है। सदियों से चली आ रही भिटौली परंपरा का महिलाओं को बेसब्री से इंतजार है। पहाड़ की महिलाओं को समर्पित यह परंपरा महिला के मायके से जुड़ी भावनाओं और संवेदनाओं को बयां करती है। हालांकि पहाड़ की बदलते स्वरूप, दूरसंचार की उपलब्धता, आवागमन की बढ़ी सुविधाओं के बाद यह परंपरा कम होती जा रही है, लेकिन प्रदेश के दोनों मंडलों के पहाड़ी क्षेत्रों में यह परंपरा पुराने रूप में जीवित है।
26 साल की हेमा बिष्ट की शादी दो साल पहले हल्द्वानी गोरापडाव निवासी गोविंद बिष्ट से हुई है। उसका मायका गरमपानी अल्मोड़ा है। वह अपनी दूसरी भिटौली के इंतजार में है। उसका कहना है कि मायके वाले पारंपरिक भिटौली देने पिछले साल भी आए थे। भोटिया पड़ाव की मंजू रावत कहती हैं 20 साल से मायके वाले हर चैत में भिटौली देने आते हैं। आज के समय मे हफ्ते में मायके वालों से एक दो बार फोन पर बात हो जाती है, लेकिन उसे भिटौली का बेसब्री से इंतजार रहता है।

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क्या है भिटौली
भिटौली का सामान्य अर्थ है भेंट यानी मुलाकात करना। उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों, पुराने समय में संसाधनों की कमी, व्यस्त जीवन शैली के कारण विवाहित महिला को सालों तक अपने मायके जाने का मौका नहीं मिल पाता था। ऐसे में चैत्र में मनाई जाने वाली भिटौली के जरिए भाई अपनी विवाहित बहन के ससुराल जाकर उससे भेंट करता था। उपहार स्वरूप पकवान लेकर उसके ससुराल पहुंचता था। भाई बहन के इस अटूट प्रेम, मिलन को ही भिटौली कहा जाता है। सदियों पुरानी यह परंपरा निभाई जाती है। इसे चैत्र के पहले दिन फूलदेई से पूरे माहभर तक मनाया जाता है।

लोकगीतों और लोककथाओं में भी मिलता है वर्णन
उत्तराखंड को काई भी तीज त्योहार हो उससे जुड़ी लोककथाएं, दंतकथाएं भी सुनने को मिलती हैं। ऐसे ही भिटौली से जुड़ी लोककथाओं, लोकगीतों, दंतकथाओं का वर्णन मिलता है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक चित्रकार बृजमोहन जोशी बताते हैं कि भिटौली से जुड़ी बहुत सी लोककथाएं, दंतकथाएं प्रचलित हैं। इसमें गोरीधाना की दंतकथा बहुत प्रसिद्ध है जोकि बहन और भाई के असीम प्रेम को बयां करती है।
इसमें चैत्र में भाई अपनी बहन को भिटौली देने जाता है। वह लंबा सफर तय कर जब बहन के ससुराल पहुंचता है तो बहन को सोया पाता है। अगले दिन शनिवार होने के कारण बिना मुलाकात कर उपहार उसके पास रख लौट जाता है। बहन के सोये रहने से उसकी भाई से मुलाकात नहीं हो पाती। इसके पश्चाताप में वह ‘भै भूखों, मैं सिती भै भूखो, मैं सिती’ कहते हुए प्राण त्याग देती है। बाद में एक पक्षी बन वह यही पंक्तियां कहती है। जोशी बताते हैं कि आज भी चैत्र में एक पक्षी इस गीत को गाता है।

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बदली जीवन शैली से लोक कथाएं और परंपराएं खो रही अस्तित्व
आधुनिक जीवन शैली के बदलने से आज पहाड़ों की परंपरा और संस्कृति को बया करने वाली लोक कथाओं, लोकगीतों का अस्तित्व खत्म हो रहा है। बृजमोहन जोशी बताते हैं कि जीवन शैली के बदलाव के बाद भिटौली की परंपरा को भी लोगों ने भुला दिया है या रूप बदल गया है। बताते हैं कि पुराने समय में भिटौली देने जब भाई बहन के ससुराल जाता था तो बहुत से उपहार और विशेषकर पकवान लेकर जाता था और उसके बहन के घर पहुंचने पर उत्सव सा माहौल होता था। उसके लाए पकवान पूरे गांव में बांटे जाते थे। आजकल भिटौली एक औपचारिकता मात्र रह गई है। आजकल बेटियों और बहनों को भिटौली के रूप में मायके पक्ष से पैसे भेज दिए जाते हैं।

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