अल्मोड़ा। जल ही जीवन है यह सभी समझते हैं। जल होगा तो कल होगा। कहा जाता है कि तीसरा विश्वयुद्ध जल के कारण होगा। लेकिन फिर भी हम पढ़े-लिखे, नए जमाने के लोग जल के महत्व को नहीं समझ रहे हैं। समझे भी कैसे हमें किताबी शिक्षा तो दी गई है लेकिन ज्ञान नहीं दिया गया। हम प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं लेकिन विकास पर नहीं।
बढ़ते औद्योगिकीकरण व शहरीकरण ने पानी के स्रोतों को समाप्त कर दिया है। नौलों धारों, गाड गधेरो के पानी के रखरखाव का पुराना ज्ञान हमारे बुजुर्गों के साथ समाप्त हो रहा है। हम सिर्फ नल के पानी पीने तक सीमित हो गए हैं। पहले गांव के नजदीक के स्रोत से पानी नल के माध्यम से लाया गया वह सूख गया तो पास के गाड गधेरो से नल में लाया गया। उसमें पानी कम हुआ तो पास की बड़ी नदी से पानी लाया गया। उसमें भी कम हुआ तो पिंडर,अलकनंदा व सरयू आदि नदियों से अल्मोड़ा, पिथौरागढ, बागेश्वर व चम्पावत जिलों के गांवों में पानी लाने की आवाज उठ रही हैं। इन नदियों से कई पेयजल योजनाएं बन रही हैं या प्रस्तावित हैं। आखिर कब तक नदियों से पानी मिलता रहेगा? नदिया भी तो छोटे-छोटे जल स्रोतों से बनी हैं। स्रोत सूख जाएंगे तो निश्चित ही एक दिन नदियां भी सूख जाएंगी। कुमाऊँ में तो वैसे भी गैर हिमालयी नदियाँ ही हैं।
हजारों वर्षों से हमारा तालाबों, बावडियों, नौलों व धारो का इतिहास रहा है। रामायण और महाभारत में भी इनका जिक्र मिलता है। राजाओं, महारानियों साधुओं, महापुरुषों, बंजारों व विधवाओ द्वारा तालाब बनाने का वर्णन कई इतिहासकारों द्वारा किया गया है। सामूहिक रूप से उत्सव पर भी इनकी सफाई का जिक्र भी मिलता है।
उत्तराखंड में देखा जाए तो पहाड़ों के ऊपर जगह-जगह वर्षा के पानी को रोकने का उपाय हमारे पूर्वजों द्वारा किये गये थे। उन्हें पोखर, कुंड, हौस, ताल, चाल, पुष्कर, चोरा, तोली, खाल, खाव के नाम से जाना जाता है। कई स्थानों के नाम भी इन्हीं तालों व खालों के नाम पर पड़े हैं जैसे घोडाखाल, चौड़ा खाल, छ्तीनाखाल, घिंघारी खाल, उफरैंखाल, सूखा ताल आदि। इनमें वर्षा का पानी जमा होकर पहाड़ों के अंदर चला जाता था जो कहीं ना कहीं जलस्रोत बनकर निकलता था। हमारे बुजुर्ग इनके महत्व को समझते थे। गांव की पहाड़ी के ऊपर के खावों को जाड़ों के बाद सामूहिक रूप से सफाई भी करते थे। इन धारों, नौलों, खावों का इतना महत्व था कि वर-वधू भी शादी के दिन इन स्थानों पर जा कर पूजा करते थे।
हमारे बुजुर्ग जब फसल बोते थे तो उनके खेत जोतने व निराई गुड़ाई का कार्य इस प्रकार होता था कि खेतों का ढलान पहाड़ी की ओर रहे जिससे खेत में पानी जमा होकर पहाड़ी के अंदर की ओर जाए। वे फसल बोने के साथ-साथ पानी भी खेत में बोने का प्रयास करते थे। उन्होंने पहाड़ों में गांव वहां बसाए जहां जल स्रोत थे क्योंकि वह जानते थे कि पानी नहीं तो गांव नहीं। लेकिन पिछले 50-60 वर्षों में नौलों धारों, खावों, तालाबों व पोखरो की संस्कृति समाप्त हो गई है। बढ़ते पलायन ने सभी की दिशा शहरों की ओर कर दी। किसी ने पहाड़ों पर बने जल स्रोतों पर ध्यान नहीं दिया। प्रगति की दौड़ में सरकारों ने नल से पानी देने का प्रयास तो किया लेकिन स्रोतों के रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया। स्रोत सूखने से नदियां भी सूखने की कगार पर हैं क्योंकि पानी बोया नहीं गया तो उगेगा कहां से? इसलिए हम सभी को ऊपर से बरसने वाली अपने हिस्से की हर बूंद एकत्रित करनी होगी। उसे बोना होगा। वर्षा के जल को दौड़ने से रोकना होगा। सूर्य से अपने जल को छिपाने हेतु चौड़ी पत्तीदार वृक्ष लगाने होंगे। अपने गांव की बंजर जमीन व ऊपरी पहाड़ियों पर खाव खोदने होंगे। पानी बोने को भी ईश्वर की पूजा मानकर कार्य करना होगा।
इसलिए हम “चलो गांव की ओर अभियान” के अंतर्गत गांव में रह रहे व नौकरी हेतु पलायन कर शहरों में जा चुके लोगों से अपील करते हैं कि वह जन्म, शादी, मन की नौकरी लगने, अपना कारोबार प्रारंभ करने, सेवानिवृत्त होने, तीर्थ से लौटने पर पानी बोने हेतु तालाब या खाव बनाने का प्रयास करें। अपने पूर्वजों के नाम पर खाव या चौड़ी पत्ती दार वृक्ष लगाने की पहल करें जिससे पुरानी व आने वाली पीढ़ी गांव से जुड़ी रहे।
सब मिलकर ऊपर वाले द्वारा वर्षा के रूप में दी गई पानी की बूंदों को पानी बीज मानकर बोने का प्रयास करें तो निश्चित गांव के नौलों धारों, गधेरों, नदियों में फिर से पानी होगा।
चलो गांव की ओर अभियान के संयोजक मोहन चंद्र कांडपाल एवं उनकी टीम के ईमानदार प्रयासों ने द्वाराहाट के कुछ गांवों में पानी बोने का सार्थक काम किया है। कांडपाल के काम से हम को भी प्रेरणा लेनी होगी।