दुश्मनों को क्यों यहाँ,वो दोस्त बनाकर बैठे हैं।
अपनी आजादी को क्यों,वो गँवाकर बैठे हैं।
क्यों नहीं वो शेर बनकर,अपनी राह चुन रहे।
अपने आशियाँ को क्यों,जेल बनाकर बैठे हैं।
डॉ. कल्पना कुशवाहा ‘ सुभाषिनी ‘
दुश्मनों को क्यों यहाँ,वो दोस्त बनाकर बैठे हैं।
अपनी आजादी को क्यों,वो गँवाकर बैठे हैं।
क्यों नहीं वो शेर बनकर,अपनी राह चुन रहे।
अपने आशियाँ को क्यों,जेल बनाकर बैठे हैं।
डॉ. कल्पना कुशवाहा ‘ सुभाषिनी ‘