शिक्षा के लिए बच्चों का शहरों को पलायन, रस्म अदायगी तक रहा देहली पूजन का पर्व
नैनी, चौर्गखा (अल्मोड़ा)। बसंत ऋतु एवं हिंदू नव वर्ष के स्वागत में चैत्र के प्रथम दिन यानि एक गते को उत्तराखण्ड के पर्वतीय अंचल में फूलदेई पर्व मनाया जाता है। वैसे इस त्यौहार को मनाने के पीछे पहाड़ में अलग- अलग किन्वदंतियां हैं। बुधवार को पर्व मनाया जाएगा। लेकिन गांवों में त्योहार को लेकर उत्साह नहीं है। वजह गांवों में बच्चे नहीं हैं। अधिकतर बच्चे पढ़ाई के लिए शहरों में पलायन कर चुके हैं।
फूलदेई पर्व की उत्तराखंड में विशेष मान्यता है। हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र मास ही हिंदू नववर्ष का पहला महीना होता है। इस त्योहार को खासतौर से बच्चे मनाते हैं। घर की देहली पर बैठकर लोकगीत गाने के साथ ही घर-घर जाकर फूल बरसाते हैं। फूलदेई के दिन छोटे- छोटे बच्चे फूल चुनकर गांव के हर घर की देली (दहलीज) पर चढ़ाते हैं। फूलदेई पर प्योलड़ी (प्योली) के फूल को विशेष महत्व दिया गया है। इस दिन यही फूल चढ़ाया जाता है। यह फूल इस समय पूरा हो जाता है। लेकिन आजकल फूलदेई पर सभी प्रकार के फूल तोड़े और चड़ाये जा रहे हैं।
फूल चढ़ाने के बाद बच्चों को उस घर द्वारा गुड़, चावल या सिक्के दिये जाते हैं। फूलदेई के दिन सुबह खीर और शाम को इन चवालों को पीसकर छोई (सई) बनाकर लोगों में बाँटी जाती है।
नैलपड़ गांव की 60 वर्षीय किशनी देवी कहती हैं कि हमारे समय में फूलदेई के लिये बच्चे तीन दिन पहले से फूल एकत्र करने लग जाते थे। हम गांव से दूर-दूर तक प्योलड़ी के फूल लाने जाते थे। तब गांव में 20-25 बच्चे होते थे। साथ में बड़ा आंनद आता था। आज नैलपड़ गांव में गिनती के बच्चे ही हैं। सब गांव छोड़कर शहर चले गए हैं। गांव में त्यौहार भी कैसे मनाएं। कौन मनाएं। सब सुना- सुना है।