झुकना मैंने सीखा नहीं,किसी भी हालातों से।
दीप जलाना है मुझको, खुद अपने ही हाँथों से।
एक अकेला खड़ा है देखो, लड़ने को तैयार यहाँ। क्यों नहीं आकर लोग पकड़ते, उसके उन हाँथों को।
यूँ तो अकेला ही देखो, वो कुछ भी कर सकता है। गर मिला साथ सभी का, वो इतिहास रच सकता है।
देखी दुनियाँ, देखे लोग, सबके मुँह पर ताले हैं। कोई किसी का नहीं यहाँ, अन्दर बहुत घोटाले हैं।
सच्चाई की राह पर मैंने, अपने कदम बढ़ाये है। दुश्मन भी यहाँ पर मुझको, कभी झुका न पाये हैं।
डॉ. कल्पना कुशवाहा ‘सुभाषिनी’