आजकल की सब बेटियाँ, होती नहीं सदाचारी।
अपना पेट भरने को,दूजे के घर की छीनें थाली।
एक एक तिनके को जोड़, जो आशियाँ बनाता है, नींव को उसकी तोड़कर वो आशियाँ जला डाली।
कौन आगे आकर इन, बेटियों को टोकेगा ।
उनकी गलत हरकतों को,कौन आकर रोकेगा।
क्या किसी भी इंसा में, अब गैरत है बची नहीं।
कौन ऐसी बेटियों को, खींचकर बाहर फेंकेगा ।
न किसी के प्यार को,छीनने का अधिकार इन्हें।
न किसी की बगिया को,उजाड़ने का अधिकार इन्हें।
फिर क्यों सब खामोश बैठे,ये नज़ारा देख रहे हैं।
आओ मिलकर हम यहाँ सही संस्कार सिखाते हैं।
डॉ. कल्पना कुशवाहा ‘ सुभाषिनी ‘