जिन्दगी का एक लम्हा,आज फिर निकल गया।
वक्त था आया हाँथ में,पर रेत सा फिसल गया।
हैं हसरतें जो दिल में, आज भी तुझसे सनम।
ये फासला ही उसे, देखो नाग सा निगल गया।
डॉ. कल्पना कुशवाहा ‘ सुभाषिनी ‘
जिन्दगी का एक लम्हा,आज फिर निकल गया।
वक्त था आया हाँथ में,पर रेत सा फिसल गया।
हैं हसरतें जो दिल में, आज भी तुझसे सनम।
ये फासला ही उसे, देखो नाग सा निगल गया।
डॉ. कल्पना कुशवाहा ‘ सुभाषिनी ‘