अधर्म का धर्म पर जहाँ में,हो रहा अब राज।
क्यों नहीं उठकर करें यहाँ, लोग अधर्म विनाश।
एक अकेला खड़ा हुआ है,देता सच का साथ।
सच की डोर को थामों तुम भी,बढा अपना हाँथ।
युगों युगों से चल रहा है,जग में झूठ का राज।
उठकर हमें अब करना है, झूठ का सर्वनाश।
पापी जितने हैं यहाँ, खुद को साधु दिखलायें।
ओढ़ सज्जनता की चादर,वो पाप ही करते जायें।
मानवता अब बची कहाँ,लोग निवाला दूजे का छीनें।
भरने अपनी झोली को,खुशियाँ दूजे की वो छीनें।
अब सब आओ साथ में, लिये हाँथ तुम मशाल ।
पाप को सारे जलाकर, खुशियों को कर दें बहाल।
डॉ. कल्पना कुशवाहा ‘ सुभाषिनी ‘