सर उठा और पग बढ़ा ,
किस सोच में है तू खड़ा।
देख कर कठिनाइयों को,
तू क्यों डरा, तू क्यों डरा।
मन्जिलें हैं अब पास तेरे ,
क्यों है तू खामोश खड़ा।
झूम उठेगा ये जहाँ भी ,
तू बस कदम बढ़ा,कदम बढ़ा।
जिन्दगी में हार का भी ,
सामना गर करना पड़े।
उन पलों में भी तू अब,
बस मुस्कुरा,बस मुस्कुरा।
एक दिन झुकना ही होगा,
मुश्किलों को तुम देखना।
हिम्मतों के साथ चलकर,
हौसलों को तू बढ़ा, तू बढ़ा।
एक दिन तू छू ही लेगा,
आसमाँ के सिलवटों को,
मुस्कुराते हुए दिलों में तू,
दीप प्यार के जला प्यार के जला।
डॉ. कल्पना कुशवाहा ‘ सुभाषिनी ‘